टीवी चैनलों पर दिखाई जाने वाली बहसों का मुख्य उद्देश्य होना चाहिए विचार-मंथन द्वारा जनता के सोच या फिर उसके चिन्तन का सही-सही प्रतिनिधित्व करना ताकि श्रोता/दर्शक के ज्ञान में इज़ाफा हो। अन्य प्रकार के विषयों यथा विज्ञान, समाजशास्त्र, पर्यावरण, कला-साहित्य आदि से जुडी बहसों में एंकर आत्मपरक हो सकता है, मगर राजनीतिक विषयों और खासतौर पर समसामयिक और अति संवेदनशील मुद्दों पर होने वाली बहसों में उसका निष्पक्ष और वस्तुपरक होना अति आवश्यक है।

केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) को 'आतंक विरोधी कानून' के तहत बैन कर दिया है और इसके सरगना यासीन मल्लिक को देशविरोधी गतिविधियों को अंजाम देने के लिए नजरबंद कर दिया है.

पाकिस्तान के बालाकोट में जैश-ए-मोहम्मद के प्रशिक्षण अड्डे पर भारतीय वायु सेना के हमले में मरे आतंकवादियों की संख्या/गिनती के बारे में पिछले कुछ दिनों से बहसबाजी हो रही है। एक बात समझ में नहीं आरही। वायुसेना बमवर्षा कर सकुशल अपने क्षेत्र में तुरत-फुरत लौटने का यत्न करेगी या लाशों की गिनती करने में जुट जायगी?

राजनीति का बाजार गरमाने लगा है। इस गर्माहट में हमारे आपसी रिश्ते खराब न हों, इस बात का ध्यान रखने की ज़रूरत है। मान लिया हमारा कोई साथी राजनैतिक प्रतिबद्धता की वजह से अपनी एक अलग विचारधारा रखता है तो इसका यह मतलब कतई नहीं है कि वह शख्स हमसे नाराज़ है और बदले में हम भी उससे दुराव रखें।

मूल लेखक: दीपक कौल
(रूपान्तरकार: डॉ० शिबन कृष्ण रैणा)

वासुदेव के घर में जब नव-वधू ने प्रवेश किया तो सबसे पहली बात जो उसे समझाई गई वह थी, ‘ध्यान रखना वधू। सामने वाली पोशकुज से कभी बात मत करना। एक तो इस कुलच्छनी की नजर ठीक नहीं है, दूसरे बनते काम बिगाड़ देने में इसे देर नहीं लगती। चुड़ैल हमेशा उस सामने वाली खिड़की पर बैठी रहती है।”

19 जनवरी 1990 का दिन कश्मीरी पंडितों के वर्तमान इतिहास-खंड में काले अक्षरों में लिखा जायेगा। यह वह दिन है जब पाक समर्थित जिहादियों द्वारा कश्यप-भूमि की संतानों (कश्मीरी पंडितों) को अपनी धरती से बड़ी बेरहमी से बेदखल कर दिया गया था और धरती के स्वर्ग में रहने वाला यह शांतिप्रिय समुदाय दर-दर की ठोकरें खाने पर मजबूर हुआ था। यह वही काली तारीख है जब लाखों कश्मीरी पंडितों को अपनी जन्मभूमि, कर्मभूमि, अपने घर आदि हमेशा के लिए छोड़ कर अपने ही देश में शरणार्थी बनना पड़ा था।

गत शनिवार को दक्षिण कश्मीर के पुलवामा जिले में एक मुठभेड़ स्थल पर घुसने का प्रयास करने वाली उग्र भीड़ पर सुरक्षा बलों ने गोलियां चला दीं जिसमें सात आम नागरिकों की मौत हो गई। इस मुठभेड़ में तीन आतंकवादी मारे गए और सेना का एक जवान भी शहीद हो गया।

मीडिया जनतंत्र का चौथा पाया माना जाता है। सही को गलत और गलत को सही कहना उसका धर्म नहीं है। उसका नैतिक धर्म है सही को सही और गलत को गलत कहना। मगर वास्तविकता यह है कि मीडिया से जुड़ा हर माध्यम किसी-न-किसी तरीके से अपनी प्रतिबद्धताओं/पूर्वग्रहों से ग्रस्त रहता है। इसीलिए पक्ष कमज़ोर होते हुए भी बड़ी चालाकी से डिबेट या खबर का रुख अपने मालिकों के पक्ष में मोड़ने में पेश-पेश रहते हैं। खबर-रूपी समोसे को आप दोने-पत्तल में भी परोसकर पेश कर सकते हैं और चांदी की प्लेट में भी। प्रश्न यह है कि मीडिया का मन रमता किस में है?

हाल ही में इलाहाबाद का नाम बदलकर ‘प्रयागराज’ और फैजाबाद का ‘अयोध्या’ किया गया। संभवतः और नाम-परिवर्त्तन किए जाएँ। नाम-परिवर्त्तन के पीछे ‘गुलाम मानसिकता’ से छुटकारा पाने की बात कही जा रही है। यह सच है कि जब हमारा देश विदेशी आक्रान्ताओं के अधीन था तो उन आक्रान्ता-शासकों की पूरी कोशिश रही कि वे हमारी संस्कृति को अपनी संस्कृति यानी सोच,जीवनशैली आदि में रंग दें। ऐसा करने से विदेशी शासकों के  अधीनस्थ देश पर अपनी पकड़ मजबूत होती है। शिक्षा-व्यवस्था में बदलाव,भाषा में बदलाव,रीति-नीति में बदलाव आदि प्रक्रियाएं इसी का परिणाम हैं।

कश्मीर छोड़े मुझे लगभग चालीस-पच्चास साल हो गए। बीते दिनों की यादें अभी भी मस्तिष्क में ताज़ा हैं। बात उन दिनों की है जब भारत-पाक के बीच पांच दिवसीय क्रिकेट मैच खूब हुआ करते थे।