बिहारियों के लिए एक छवि की समस्या हमेशा रही है.  अंग्रेज़ों द्वारा नील और अफीम की बाजोर खेती के कारण स्वाधीनता के पहले ही बिहार गरीबी में धकेल दिया गया था. महा आकालों में सैकड़ों की मौत होने लगी.  गाँव के गाँव लुप्त हो कर जंगलों में विलीन हो गए. इन माहौल में अँगरेजों ने सैकड़ों की संख्या में गरीबी से मारे बिहारियों को जहाज़ों में ले जा कर विश्व के सुदूर कोनों में अपने उपनिवेशों (colonies) में कराबद्ध मजदूरी (indentured labor) के लिए इस्तेमाल किया.

चूंकि गुलामी नियमतः ख़त्म हो चुकी थी, तो उसकी जगह अंग्रेज़ों ने इन अनपढ़ गरीबों से ५ साल के समझौता पत्र (agreement) पर हस्ताक्षर करा लिए. इनमें से कोई ‘गिरमिटिया’ (agreement का अपभ्रंश) लौटा नहीं.  आज फ़िजी, मॉरिशस, त्रिनिदाद इनकी पुश्तें अपनी पहचान खोजने में लगी हैं. भाषा (भोजपुरी) तेजी से भूल रहे हैं. अपने बिहार से संपर्क भी टूट गया है. बस दुनिया रूपी समुद्र में एक उतराती नाव की तरह किनारा खोज रहे हैं.

अब देखिये मैं बातों बातों में कहाँ निकल आया ! आजादी आई और सैकड़ों की तादाद में बिहार के गरीब किसान खेती छोड़ कर कलकत्ता में मजदूरी करने चल दिए. चटकल के जूट मिल में पटुआ के बोरे बनाने में, चितरंजन में रेल गाडी की फैक्ट्री में और अन्य उद्योगों की रीढ़ की हड्डी बिहारी मजदूर ही रहे.  इधर नेपाल में निर्वनीकरण (deforestation) के कारण हर साल उत्तरी बिहार में भयंकर बाढ़ें आने लगी.  रही सही खेती भी जाती रही. अब बिहारी चले पंजाब में ‘खटने’. यही सिलसिला चलता रहा.

आज प्रवासी बिहारिओं की संख्या बहुत ज्यादा है. एक बड़े दुर्भाग्य की बात यह है कि बिहारियों की पहचान बिहार के गुंडों और गरीब मजदूरों से ही होती रही है. प्रचुर मात्रा में पढ़े लिखे बिहारी अपने को बिहारी कहने में कतराने लगे हैं जिससे लोग उनकी गरीब मजदूर, दूध वाला या गुंडा मवाली से तुलना न कर बैठें.  पढ़े लिखे बिहारिओं ने गिरगिट की तरह रंग बदल कर अपने अपने जगहों पर चुपचाप रह रहे हैं.  इधर लालू जादव बिहार का भद्दा चेहरा बन गया. मैं किसी अन्य प्रदेश वाले को जब भी कहता था कि मैं बिहार का हूँ (मैंने आज तक अपनी पहचान नहीं छुपाई) तो वो लालू का जिक्र कर ही देता है. मैं भी ढीठ की तरह उसके प्रदेश के लालू जैसे व्यक्ति का जिक्र कर के अपने शर्म की चादर उसे वापस कर देता हूँ.

इधर कुछ महीनों में एक बड़ी अच्छी चीज देखने को मिली है. लालू के जेल जाने और उसके बेटों के स्वतः विनाश के बाद पढ़े लिखे बिहारी खुल कर अपने को बिहारी कहने लगे हैं. मैं रवीश कुमार की राजनीतिक सोच से गैरसहमत होने के बावजूद, इस बात से बहुत प्रसन्न हुआ की उन्होंने शुद्ध भोजपुरी में अपने जीवन के बारे में और अपने शहर मोतिहारी के बारे में हाल मे बताया. मेरा मन चीख उठ, “वाह बबुआ! अरे हमहु मोतिहरिये का हइं. बड़ा खुसी भईल जे तू भोजपुरी में साक्षात्कार दे रहल बाड़ अ!)

अभी दो दिन पहले ही अंजना ओम कश्यप और श्वेता सिंह ने एक साथ छठ के त्यौहार के विषय में बात करते हुए अपने खजूर, ठेकवा की पसंद का जिक्र किया और अपने बिहार के जड़ों को जगजाहिर किया. आशा यही करता हूँ कि हर पढ़ा लिखा बिहारी गर्व से अपने को बिहारी मूल के होने का दावा करे और अपने रहन सहन और तौर तरीकों को बिहारी झंडे के साथ अन्य प्रदेशों के लोगों से बेहतर दिखाए.

मैं जानता हूँ की पटना डेली अधिकांश बिहारी पढ़ते हैं परन्तु लिखने में प्रतियोग (participate) नहीं करते. हज़ारीबाग के राष्ट्रीय उद्द्यान में सड़क के बगल का एक बोर्ड याद आता है. उसपर लिखा था, “कुंजों के वातायन में छुप उत्सुक आँखें रही निहार”. अब बिहारियों के लिए छुप के निहारने का समय ख़तम हो गया है. आप सब गर्व से यहाँ की परिचर्चा में भाग लें और अपनी बिहारी ऊर्जा का प्रदर्शन करें. जिस ज़माने में LGBT भी क्लोजेट के बहार आ रहे हैं, बिहारियों को भी चाहिए की क्लोज़ेट के बहार आएं और हूँकार ले कर अपने बिहारी के होने का गर्व से इज़हार करें.