अभी कुछ दिनों की बात है जब शिक्षक प्रशिक्षण के लिए प्रखंड संसाधन केन्द्र गया हुआ था. यह प्रशिक्षण समावेशी शिक्षा के बारे में था. 

प्रशिक्षण के दौरान हमारे प्रशिक्षक ने कई बार कहा की 'दिव्यांग' बच्चों की देखभाल एवं उनकी शिक्षा में कठिनाइयां हैं. इसलिए हमें थोड़ा मेहनत एवं प्रयास की जरूरत है इसलिए हम सब यहाँ एकत्रित हुए हैं. इसपे मैंने अपना विरोध भी जताया लेकिन उसकी चर्चा बाद में. 

तो प्रश्न शुरु होता है समावेशी शिक्षा के बारे में. आखिर समावेशी शिक्षा ही क्यों ? समावेशी शिक्षा क्या है ? लगातार शिक्षाविद, तर्कशास्त्री, सरकार एवं अन्य लोग इस बात पे क्यों बल दे रहें है कि विकलांग बच्चों की शिक्षा सामान्य बच्चों के  साथ हो. इसकी क्या महता है ? इससे क्या मिलेगा ? इसके पीछे क्या तर्क है ?

इसे एक सामान्य उदाहरण से समझते हैं. मान लें हमारे परिवार में कोई असामान्य बच्चा पैदा हो जाए तो  हम क्या करते है ? ज़ाहिर है सारे लोग लगभग सामान्य व्यवहार करते हैं. उसके साथ खेलते हैं, हंसते हैं और खाना-पीना साथ करते हैं. और अगर इन सब के बीच कोई उसके साथ असामान्य व्यवहार कर भी रहा होता है तो वो नहीं चाहता  की उसे इसका एहसास हो. अगर हम कुछ ऐसा करते हैं जिससे उसे एहसास हो की ये मेरी शारीरिक अक्षमताओं की वजह से किया जा रहा है तो उसे तकलीफ होती है. लेकिन अगर उसे एहसास हो की ये मेरा अधिकार है और मेरे साथ घटित सारी चीज़ें सामान्य है तो वो भी उस खुशी में शामिल हो जाता है. 

जिस बिंदु पे मैं ले जाना चाहता हूँ उसको समझने के लिए एक और उदाहरण महत्वपूर्ण है. गांधी के समय की बात है जब उन्होंने दलितों के लिए हरिजन शब्द का इस्तेमाल किया था. हरिजन का अर्थ होता है हरि (भगवान) के जन (पुत्र). बाद में इसपे अनुसूचित जाति के लोगों ने एतराज जताया. उन्होंने कहा की हमें 'हरिजन' से न जाना जाए. ये  शब्द हमें किसी के द्वारा हम पर एहसान करने की याद दिलाता रहेगा. इससे अच्छा है कि हमें 'दलित' कहा जाये क्यों की हम एक ज़माने से सताये हुए लोग हैं, दबाये हुए लोग हैं जो कि एक सच्चाई है और इसे दबाया नहीं जा सकता. इसे दुनिया को समझना चाहिये की आखिर हमारी स्थिति ऐसी क्यों है? कहानी आईने की तरह साफ़ होनी चाहिए. 'हरिजन' तो सभी हैं फिर ये शब्द खास हमारे लिए क्यों? 

नियत ना गांधी की गलत थी ना मोदी की है. उन्हें जो उचित लगा उन्होंने उनके लिए इस्तेमाल करना चाहा. लेकिन खंडन और व्याख्या तो हर चीज़ की होती है. जब हम इस मुद्दे पे सोचते है, विचारते हैं तो समझ आता है कि किसी का नाम बदलने से चीज़ें नहीं बदलती. हर चीज़  बदलता है सोच बदलने से. इसे एक उदाहरण से समझते हैं. अगर हमारे कार्यालय में एक बदसूरत लड़की हो और हम सब के सामने कहें, 'कितनी सुन्दर हैं आप, मैंने आपकी जितनी हसीन लड़की आज तक नहीं देखी'. जरा सोचिये उस लड़की पर क्या बीतेगी? 

एक और कल्पना करते हैं. मान लें हम अपने घर आये किसी व्यक्ति से अपने अंधे बेटे /भाई/ बहन के बारे में ये कहते हैं कि जब से ये मेरे घर आई/आया है तब से हम बहुत खुशहाल हैं. सारे मुहल्ले में इसकी चर्चा होती है. इसके अन्दर दैविक खूबियाँ हैं. जरा सोचिये कब तक ये सारी बातें उस व्यक्ति को अच्छी लगेगी? 

"दिव्यांग" कहना ठीक उसी प्रकार है जैसे दलितो को हरिजन कहा जाना. हमें कोई बताये 'दिव्य' अंग क्या होता है? क्या ऐसे अंग को दिव्य कहते हैं जिससे चमत्कार होता हो ? जिससे करामात होता हो ? आप बताये जिसके पास आंख नहीं है,  हाथ नहीं है या पैर नहीं  है वो बाकी दुनिया से हट कर क्या अलग करामात करेंगे जो सामान्य बच्चे नहीं कर सकते जो उन्हें 'दिव्यांग' का खिताब दिया जाये. जिसका आधार ऐसा लगे की हमारी त्याग पर है! 

जरूरत है कि हम ये समझे की गोरा-काला, मर्द-औरत, लंबा-नाटा, तेज़-मंदबुद्धि, तथा सामान्य एवं असामान्य, ये सब इस कायनात का हिस्सा हैं. ऐसे लोग पृथ्वी के हर कोने में हैं. इनका पुरी दुनिया की जनसंख्या में एक स्थान है. और हम ये जानते है की जो भी इस धरती पर पैदा लेता है उसका यहाँ की संसाधनों पे उतना ही हक़ होता है जितना दूसरे का. और ये हक़ उन्हें एहसान के रूप में नहीं बल्कि सम्मान अधिकार के रूप में मिलना चाहिये.

हमारे घर की तरह ही हमारा देश हमारा घर है. जिस तरह घर में  मौजूद चीज़ों पर सब का हक़ बराबर है उसी तरह देश में मौजूद सभी चाहे वो हिन्दू हो या मुस्लिम, सिक्ख हो या इसाई, मर्द हो या औरत, सामान्य हो या विकलांग, उस देश की संसाधनों पे सब का बराबर का हक़ है. 

इसके पहले भी विकलांग की जगह 'सक्षम व्यक्ति' का इस्तेमाल किया जाने लगा था लेकिन कुछ शिक्षाविदों और अन्य लोगों के द्वारा भी ये कहा गया की इस शब्द से भी एहसान करने की भावना झलकती है. फ़िर भी 'दिव्यांग' की तुलना में 'सक्षम व्यक्ति 'ज्यादा तार्किक लगता है. 

जरूरत है की हम ये समझे की हमारा कर्तव्य क्या है और दूसरे का हक़ क्या है. 

शुरु में एक प्रश्न छूट गया था जिसका जिक्र भी जरूरी है. अपने प्रशिक्षक से मैंने कहा कि इस दुनिया में ऐसे कारनामे हुए है जिसकी कल्पना भी बहुत पहले नहीं हुई होगी. आज हम आसमान में सफ़र करते हैं, चाँद पे जा पहुँचें और मंगल कामनाये हैं हमारी मंगल के लिए. इसलिए समावेशी शिक्षा मुश्किल नहीं बहुत आसान है अगर हम अपनी समझ को दुरुस्त कर ले. 

आज अखबार हो या राजपत्र, लगभग हर जगह 'दिव्यांग' शब्द का प्रयोग किया जा रहा है. किसी ने इसपे कुछ कहने की या सोचने की  जहमत नहीं उठाई. हमारे प्रधान सेवक ने कहा और राजाओं ने हुक्म की तामील शुरु कर दी!


Md. Mustaqueem
M A in Communication
Doon University, Dehradun

The writer, a native of Gopalganj in Bihar, has worked as a special correspondent to the Indian Plan magazine in Uttrakhand and is currently working as a teacher in a government middle school in Siwan district of Bihar.