सुना था बाल मन को जिस सांचे में ढालो वह ढल जाता है. बात सही भी है. बचपन में हर बच्चा एक एम्पटी कैनवस की तरह होता है जिस पर हम जो रंग भरना चाहे भर सकते हैं. यह बात परीवार और आसपास के पर्यावरण पर मजबूती से निर्भर करता है.
करीब एक पखवाड़े पहले ही बेगूसराय पहुंचा था. बरौनी जंक्शन से बहुत ही करीब है बीहट गांव जहां कन्हैया का घर है. ऑटो से उतर कर कुछ दूर पैदल चलने के बाद गाड़ियों का आना जाना देख कर ही समझ गया कि उस आंगनबाड़ी सेविका के घर के बहुत करीब हूँ जिसने कन्हैया को जन्म दिया.
तमाम मीडिया कर्मी बैठे हुए थे. भारत के अलग-अलग हिस्सों से लोग पहुंचे थे और लगातार यह सिलसिला जारी था. अंधेरा होने को था, लोग कन्हैया के इंतजार में थे.
समर्थकों के लिए कन्हैया के घर पर ही नाश्ते-खाने का व्यवस्था किया गया है. मुझे भी भूख लगी थी. मैं रसोई घर की तरफ बढ़ा. वहां मैने कन्हैया की बहन को देखा जो उसी रसोई से बच्चों के लिए कुछ ले जा रही थी. शक्ल से मैंने पहचान लिया था कि यह कन्हैया की बहन ही हो सकती है. मैंने कहा बहन क्या कन्हैया की मां से मुलाकात हो सकती है. तभी कन्हैया की माँ वहां हैंडपंप से पानी पीने के लिए पहुंची.
कन्हैया की मां से बात शुरू हुई. नजीब की मां भी वहीं बैठी रो रही थी. वही बूढ़ी औरत जिसने अपने बेटे को खो दिया. जेएनयू से लेकर पूरे भारत में बिलखती-रोती वह मां आज उस बेटे के लिए बेगूसराय पहुंची है जो हमेशा से उनके साथ खड़ा रहा है. उस बूढ़ी मां के आंसू देख कर ना ही चुप हो जाने को कहने का मन कर रहा था ना ही आंसू देखा जा रहा था. वही दूर खड़ा नजीब का भाई सब चुपचाप देख रहा था. हाल जाना तो पता चला कि भाई भी अंदर ही अंदर खोखला हो चला है.
करीब 11:30 बजे रात कन्हैया पहुंचता है और साक्षात्कार का सिलसिला शुरू होता है. कन्हैया ने क्राउडफंडिंग से 70 लाख तो जुटा लिए हैं. लेकिन गाड़ी से उतरने पर मैंने उस कन्हैया को देखा जिसने पैरों में हवाई चप्पल पहन रखे थे, तन पर जो कपड़े थे उसे देख ऐसा लग रहा था मानो हम में से ही कोई एक अचानक से विश्व फलक पर आ गया है. कुछ वक्त ही बात कर पाया क्योंकि रात काफी हो चुकी थी. अगले रोज भी उसे दूसरे क्षेत्र चुनाव प्रचार के लिए जाना था.
कन्हैया करीब 7:00 बजे सुबह चुनाव प्रचार के लिए निकल रहे थे और मीडिया का हुजूम लगा हुआ था. दूर-दूर से आए लोग भी अलग-अलग क्षेत्रों में चुनाव प्रचार के लिए निकल रहे थे. इलाहाबाद विश्वविद्यालय, जेएनयू, दिल्ली विश्वविद्यालय और भी बहुत सारे विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों से पहुंचे प्रोफेसर और छात्र चुनाव प्रचार के लिए निकल रहे थे.
गुजरात से एमएलए जिग्नेश, जेएनयू से शेहला रशीद, नजीब की मां, योगेन्द्र यादव, जावेद अख्तर, शबाना आजमी और अभिनेता प्रकाश राज जैसे विश्व प्रसिद्ध लोग भी बेगूसराय में कन्हैया के लिए पैर जमाए हुए हैं.
इन सब के बीच मैं सोचे जा रहा था कि कन्हैया को लेकर आखिर लोगों में इतनी दीवानगी क्यों है? आखिर क्यों लोग अपना-अपना काम छोड़कर पूरे भारत से अपने पैसे से बेगूसराय पहुंच रहे हैं.
मैं सोच रहा था कि क्या ये सारे सुलझे हुए लोग हैं? क्या ये संघ और बीजेपी के खिलाफ हैं? क्या ये जो एकता की, संवैधानिक मूल्यों की बात कर रहे हैं, ये सब पारिवारिक स्तर पर, अपने कार्यस्थल पर पूरी ईमानदारी के साथ पेश आते होंगे? शायद नहीं!
एक बात है जो पूरे विश्व के लिए सत्य है और वो यह कि लोग हर स्तर पर भेदभाव रखते हैं. पूरी दुनिया में अलग-अलग तरीके के भेदभाव हैं. परिवार से ही शुरू करते हैं - परिवार में ही सदस्य एक दूसरे से अच्छा बनने की कोशिश करते हैं, चाहे वह काम को लेकर हो, पढ़ाई को लेकर हो, आचरण को लेकर हो या पहनावे को लेकर हो.
जब हम घर से बाहर की ओर जाते हैं तो जात और धर्म को लेकर भेदभाव शुरू हो जाता है. कभी सम्पन्नता को लेकर तो कभी योग्यता को लेकर. यह भेदभाव आगे क्षेत्रवाद के रूप में देखा जाता है तो कभी राष्ट्र के रूप में. हर तरफ होड़ लगा हुआ है खुद को बेहतर साबित करने की.
यह भेदभाव कद, रंग और स्टाइल को लेकर भी रहा है और अभी भी है. यह भेदभाव जो है न चाहे किसी भी प्रकार का हो यह हमेशा से रहा है और रहेगा भी.
इन सब के बीच सबसे अहम बात यह है कि हर काल में कुछ गिने-चुने ऐसे लोग पैदा होते हैं जिनमें लोगों की, हालात की दशा-दिशा बदलने का मादा होता है और वो लोगों पर प्रभाव छोड़ते हैं. अब यह लोग अच्छे भी होते हैं और बुरे भी. जो अपनी बात चाहे वह अच्छा हो या बुरा चतुराई से रखता हो वह लोगों पर अपनी पकड़ बना लेता है. हालांकि असत्य को तो हारना ही है लेकिन हो सकता है अगर कोई उसके मुकाबले ना खड़ा हो तो वह लंबे अरसे तक भी बना रह सकता है.
सन् 2014 में मोदी अपनी बात रखने में कामयाब हुए और अंततः प्रधानमंत्री बने. लोगों ने उन पर विश्वास किया. उन्हें लगा ये हमारे दुख-दर्द खत्म करेगा. महंगाई कम करेगा. रोजगार लायेगा.
लेकिन उन्हें नहीं पता था कि जो लोग गैस का चूल्हा लेकर, टमाटर और प्याज का माला पहने सड़कों पर यूपीए सरकार के समय उतरा करते थे वही उन सारी चीजों के दाम दोगुनी कर देंगे.
जो बीजेपी आधार कार्ड और जीएसटी का विरोध करती थी, वह उसे शख्ती से लागू कर रही है. एफडीआई का विरोध करने वाले मोदी ने अपने शासनकाल में एफडीआई को बढ़ाया है.
आम जनता की सवारी कही जाने वाली रेलगाड़ी जो पूरे भारत को जोड़ती है उसके किराए के बारे में क्या कहना. बेरोजगारी पिछले 45 वर्षों में सबसे निचले स्तर पर है. नोटबंदी पूरी अर्थव्यवस्था खराब कर चुकी है.
अगर आप ने सरकार से सवाल पूछ लिया तो समझो शामत आ जाएगी. देशद्रोही और ना जाने क्या-क्या सुनने को मिल सकते हैं.
सारे मुद्दे गुल है इस 2019 के लोकसभा चुनाव में. बस सिर्फ हिंदुस्तान-पाकिस्तान, हिंदू-मुस्लिम, कश्मीर और आतंकवाद पर भारतीय जनता पार्टी चुनाव लड़ रही है.
मुझे समझ नहीं आता बीजेपी कैसे कामयाब हो गई लोगों को यह समझाने में कि बाकी पार्टियां देशद्रोही हैं. अगर ऐसा है तो फिर भारत की बहुसंख्यक आबादी ही देशद्रोही है क्योंकि हर पार्टी में नेताओं की और सदस्यों की संख्या तो बहुसंख्यको का ही ज्यादा है.
अगर देशद्रोह नाम की कोई चीज है तो वह है हिंदू-मुस्लिम करके लोगों को बाटना, सैनिकों का राजनीतिकरण करना.
सैनिकों का राजनीतिकरण कितना खराब साबित हो सकता है. इसके लिए जिस देश में भी सैनिक तख्तापलट हुआ है उसका इतिहास देखिए. सैनिक राजनीतिकरण से ही तख्तापलट की संभावना प्रबल होती है. यकीन ना हो तो जरा गौर कीजिए कि प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ एक सैनिक चुनाव लड़ रहा है.
इन सारी बातों को बड़ी खूबसूरती से, आसान भाषा में, भाजपा के हर षडयंत्र का जवाब कन्हैया देता रहा है, और दे रहा है.
फर्क हमें यह समझना है कि मोदी ने देश को गुमराह किया और बांटने का काम किया और कन्हैया ने सच को प्रकट करने का और लोगों को जोड़ने का काम कर रहा है. देश-दुनिया में हर काल में अच्छे और बुरे लोग आए हैं. सबका अपना-अपना प्रभाव रहा है.
इसी दुनिया के लोगों ने हिटलर देखा, अंग्रेजी हुकूमत देखी, ओसामा देखा. ट्रंप, किम जोंग और नरेंद्र मोदी देख रहे हैं.
उसी दुनिया ने मार्क्स, लेनिन, महात्मा गांधी, शहीद चंद्रशेखर आजाद, शहीद भगत सिंह और अंबेडकर देखा और मलाला, तीस्ता और कन्हैया देख रहे हैं. और भी होंगे और आएंगे. इतिहास तो दोनों प्रकार के लोगों का लिखा जायेगा. बस फर्क सिर्फ प्रस्तुति का होगा और यादों का होगा.
जैसा नेतृत्व मिलेगा समाज वैसा ही बनेगा. जितनी नफरत और खाई भारतीय समाज में बढ़ा दी गई है, जितनी नंगई पर मौजूदा शासन आ गई है और लोगों में भर दिया है. यह बुरी सोच, कुर्सी का लालच और बुरे नेतृत्व का नतीजा है.
भारत का बुद्धिजीवी वर्ग, सामाजिक सद्भावना रखने वाले लोग और देश की विविधता पसंद लोग कन्हैया को ऐसे रूप में देख रहे हैं जो भारतीय जनता के वैसे वर्ग जो काफी उग्र हो चुके हैं और दूसरी वर्ग के लोगों को नफरत भरी नजर से देख रहे हैं. उनके मन-मस्तिष्क पर जो बुरे नेतृत्व का परिणाम है उसे एक अलग रंग दे सकेगा. उनको एक अलग सांचे में ढाला जा सकेगा. क्योंकि जिस प्रकार बच्चों पर परिवार-समाज का असर पड़ता है उसी प्रकार जनता पर भी नेतृत्व का असर पड़ता है
शायद लोग कन्हैया को ऐसे नेतृत्व के रूप में देख रहे हैं जिसने सच्चाई से पर्दा उठाया है और उठाएगा. लोग कन्हैया के माध्यम से असलियत से रूबरू हो सकेंगे. तभी तो लोग भारत के कोने कोने से बेगूसराय पहुंच रहे हैं.
Md. Mustaqueem, M A in Communication, Doon University, Dehradun
The writer, a native of Gopalganj in Bihar, has worked as a special correspondent to the Indian Plan magazine in Uttrakhand and is currently working as a teacher in a government middle school in Siwan district of Bihar.